Wednesday, January 17, 2018

उम्र के पड़ाव पर

तुम्हारे जाने के बाद
मैं अपने ही घर में
एक अजनबी की  तरह
रहने लग गया हूँ

कम बोलना और
ज्यादा सुनने का प्रयास
करने लग गया हूँ

कोई कुछ भी कहता है
तो मान लेता हूँ
तर्क अब नहीं करता हूँ

किस से करू तर्क
किससे कहूँ मन की बात
तुम्हारे सिवा कोई
हमजुबां रहा भी तो नहीं

जज्बातों का
सैलाब उठता है
नाराजगियों का
तूफ़ान भी उठता है

मगर उम्र के
इस पड़ाव पर
जिन्दगी को किसी तरह
सम्भाले चल रहा हूँ।


[ यह कविता "कुछ अनकही ***" पुस्तक में प्रकाशित हो गई है ]






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