Friday, April 15, 2016

धर कूंचा धर मंजलां रै (राजस्थानी कविता)

बाळू म्हारी सोने री खान रै
इरो घणो करां म्है गुमान रै
आतो धोरा री मुसकान रै
निपजै मीठा बोर मतीरा रै
बैवे धर कूंचा धर मंजलां रै।

बाळु  बाजरियाँ लहरावे रै
काचर लौट-पौट हो ज्यावै रै
आतो कोसा-कोस उड़ ज्यावै रै
जद चाळै बायरो झिणो रै
बैवे धर कूंचा धर मंजलां रै।

बाळू मैहके बिरखा मांई रै
जद भरयो भादवो गाजे रै
आतो घणी सोवणी लागै रै 
जद चौमासे खैती निपजै रै
बैवे धर कूंचा धर मंजलां रै।

बाळु उंदाळे री रमझोळ रै
चालै आंध्यां घणी खेंखाती रै
आतो पसरै कोसां कोस रै
भर दै घर आंगणा गौर रै 
बैवे धर कूंचा धर मंजलां रै।





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