Thursday, August 20, 2015

अनुभूति

मेज के सामने बैठा
निस्पंद झांक रहा हूँ
मैं अतीत में

मेरे मानस पटल पर
उतरने लगी है
तुम्हारी यादें

उभरने लगी हैं तस्वीरें
बल्कि पूरा का पूरा
परिदृश्य

बालों को गर्दन के पीछे
समेटती तुम खड़ी हो
मेरे पास

तुम्हारे बदन की
संदली सुगंध
फ़ैल रही है कमरे में

अपनी गर्दन पर
महसूस कर रहा हूँ तुम्हारी
साँसों का गुदगुदा स्पर्श

तुम पढ़ रही हो मेरी लिखी 
कविता की एक-एक पंक्ति
और कह रही हो 
वाह! वाह ! वाह !

सब कुछ
पहले जैसा ही 
स्मरण हो रहा है आज  

लेकिन मेरा बढ़ा हाथ
नहीं छू पा रहा है
तुम्हारा गात।




                                               [ यह कविता "कुछ अनकहीं " में छप गई है।]







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