Tuesday, February 10, 2015

आज भी तुम्हें पुकारती है


वो गीता
जिसे तुम रोज पढ़ा करती थी
अपने ममता भरे स्वर में
आज भी तुम्हे पुकारती है

वो धौली
जिसे तुम रोज सुबह
अपने हाथ से रोटी खिलाती थी
आज भी दरवाजे पर रंभाती है

वो तुलसी
जहाँ तुम रोज घी का
दीपक जलाया करती थी
आज भी तुम्हारी राह टेरती है

वो बिंदिया
जिसे तुम रोज दर्पण के 
किनारे लगाती थी 
आज भी तुम्हारी राह देखती है

वो दरवाजा
जहाँ तुम शाम को बैठती थी
आज भी तरसती आँखों से
तुम्हारी राह देखता है 

वो लाडली 
पोती आयशा जिसे तुम 
रोज गोद खिलाया करती थी
आज भी तुम्हें ढूंढती है।



                                               [ यह कविता "कुछ अनकहीं " में छप गई है।]




No comments:

Post a Comment