Thursday, October 30, 2014

एक बार लौट आओ



रंग बिरंगी तितलियाँ
आज भी पार्क में
उड़ रही है 

गुनगुनी धुप आज भी 
पार्क में पेड़ों को
चूम रही है 

फूलों की खुशबु आज 
भी हवा को महका 
रही है

कोयलियाँ आज भी
आम्र कुंजों में
गीत गए रही है

हवा आज भी
टहनियों की बाँहे पकड़
रास रचा रही है

लेकिन तुम्हारी
चूड़ियों की खनक आज
सुनाई नहीं पड़ रही है

तुम्हे मेरी कसम
मेरे हमदम
एक बार लौट आओ

अपनी चूड़ियों की
खनक एक बार फिर से
सुना जाओ।


                                  [ यह कविता "कुछ अनकहीं " में छप गई है।]









Tuesday, October 28, 2014

यादें मेरी स्मृति में बसी रहेगी





प्रियजन कहते हैं वो चली गई
आप उसे अब भूल जाओ
लेकिन मैं कैसे भूल जाऊँ ?

प्रेम केवल यादों की
चौसर मात्र तो नहीं है कि
इतनी सहजता से भूल जाऊँ

उसका प्रेम तो मेरे
रोम-रोम में घुल गया है
जिसे भुलाना मेरे लिए
इतना सहज नहीं रह गया है 

उसके अहसासों का
उसकी उमंगों का
उसकी मुस्कानों का
एक संसार मेरे मन में बस गया है

मैं कैसे करुं उन
साँसों को अलग जो मेरी
साँसों के संग घुल-मिल गयी है

मैं कैसे लौटाऊँ
उसके बदन की खुशबु
जो मेरे भीतर समा गयी है

मैं कैसे अलग करुं उसकी छायां
जो मेरी छायां संग
एकाकार हो गयी है

मैं कैसे भुलावुं उन
खूबसूरत क्षणों की यादें
जो मेरे दिल में बस गयी है

जब तलक
इस धरा पर मैं रहूंगा
तब तलक उसकी यादें
मेरी स्मृति में बसी रहेगी। 



[ यह कविता "कुछ अनकही ***" पुस्तक में प्रकाशित हो गई है ]





Wednesday, October 22, 2014

तुम संगदिल हो बेदिल नहीं



आज मैंने सूरज से पूछा--
रोज सुबह वो तुम्हें
अर्ध्ये दिया करती थी
आज मुझे बताओ
वो अब कैसी है ?
सूरज ने कहा -वो अच्छी है
और चला गया पहाड़ों के पीछे।

आज मैंने चाँद से पूछा--
तुम्हें देख-देख वो रोज
अपनी पोते-पोतियों को लोरियाँ
सुनाया करती थी
आज मुझे बताओ
वो अब कैसी है ?
चाँद ने कहा - वो अच्छी है
और चला गया बादलों के पीछे।

आज मैंने हवाओं से पूछा--
तुम रोज उसके आँचल से
खेला करती थी
आज मुझे बताओ
वो अब कैसी है ?
हवाओं ने कहा - वो अच्छी है
और चली गई पेड़ों से गुनगुनाने।

आज मैंने बादलों से पूछा--
तुम तो उसके पास से आते हो
आज मुझे बताओ
वो कैसी है ?
बादलों ने कहा - वो अच्छी है
और चले गए आकाश को चूमने।

मैंने सबसे कहा-
तब मुझे भी ले चलो
उस के पास
कोई भी तैयार नहीं हुवा
मुझे ले चलने तुम्हारे पास

मैंने तारों की पंचायत में
फ़रियाद लगाईं
चांदनी से सिफारिश करवाई
जंगल, पहाड़, नदियां से
प्रार्थना की
लेकिन कोई सुनाई नहीं हुई

मुझे पता है
तुम मेरे बिना
खुश रह ही नहीं सकती
तुम संगदिल हो बेदिल नहीं।




                                               [ यह कविता "कुछ अनकहीं " में छप गई है।]







Tuesday, October 21, 2014

मेरी छोटी पोती आयशा



""दद्दा"
यह सुरीली आवाज
बिना किसी काट छांट के 
मेरे कानों तक पहुँचती है 

इस बेशकीमती  
आवाज को सुनने के लिए 
मेरे कान बेक़रार रहते हैं 

आवाज को सुन कर 
कानों को एक प्यारी सी 
गजल का अहसास होता है 

मेरे पास आते ही
मैं उसे दोनों हाथों से 
उठा लेता हूँ 

मेरे हाथों को 
नरम- मुलायम खरगोश 
का अहसास होता है 

यह चंचल-नटखट मेरी 
सबसे छोटी पोती 
आयशा है।

Saturday, October 18, 2014

तुम जो साथ नहीं हो

जब तक
तुम मेरे साथ थी
मुझे नदी, नाले,
पहाड़, झरने
बाग़, बगीचे
बरसते बादल
हरे-भरे खेत
बहुत अच्छे लगते थे

अच्छे तो
वो आज भी हैं
लेकिन अब तुम  जो
मेरे साथ नहीं हो...... 

सुबह- दो मनः स्थितियाँ

एक सुबह
उस दिन हुई थी
जब तुम मेरे साथ थी

एक सुबह
आज हुई है जब
तुम मेरे साथ नहीं हो

सुबह तो वही है
सूरज भी वही है
लेकिन मनः स्थिति वह नहीं है

उस सुबह
होठों पर हँसी थी
जब तुम मेरे साथ थी

आज सुबह
आँखों में पानी है
जब तुम मेरे साथ नहीं हो

मेरा मन समझता है
दोनों में कितना
अन्तर है।

यादों का वृन्दावन

मैं तुम्हें जितना ज्यादा
याद करता हूँ
मेरा दुःख उतना ही
बढ़ता जा रहा है

मैं चाहता हूँ
तुम्हें याद करना छोड़ दूँ
जिससे मेरा दुःख
कम हो जाए

लेकिन जितना कम
याद करता हूँ
उतनी ही ज्यादा
याद आने लगती है

समझ नहीं आ रहा
कि मैं क्या करूँ
कैसे विछोह के दर्द और
जख्मों से मुक्ति पाऊँ

जिंदगी में हर किसी ने
याद करना सिखाया
कैसे भूलना है
यह किसी ने नहीं सिखाया

दिल भी बड़ा नादान है
जीवन के सफर में केवल
यादों के वृन्दावन में ही 
रहना चाहता है। 



( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। ) 

Friday, October 17, 2014

अलविदा की बेला


तुम तो मुझे छोड़ कर
कहीं नहीं जाती 
अकेली

फिर आज क्यों 
मुझे छोड़ ली गयी 
अकेली 

मेरे घर पहुँचने तक भी 
तुमने नहीं किया 
इन्तजार 

नहीं दिया तुमने मुझे 
दो बात करने का 
भी अधिकार 

थोड़ी देर रुक जाती
तो तुम्हारा क्या 
बिगड़ जाता 

अलविदा की बेला में
दिल की बात ही
कह लेता 

लेकिन तुम तो 
मेरे पहुँचने से पहले ही 
चली गई 

इतने लम्बे सफर में
मुझे छोड़ अकेले ही
निकल गई 

मत चली जाना इतनी दूर 
कि मेरी आवाज भी 
नहीं सुन सको 

अपने भरे पुरे परिवार को 
फिर से देख भी 
नहीं सको 

जल्दी लौट आना 
मैं अकेले जीवन-पथ पर 
 नहीं चल पाउँगा  

तुम्हारी जुदाई का दर्द 
मैं सहन नहीं कर 
 पाउँगा।



   [ यह कविता "कुछ अनकहीं " में छप गई है।]