Thursday, July 21, 2011

एक से दस तक

एक देगची
चावल दो
नहीं पके
तीन दिन वो

चार कबूतरों
को बुलवाया
पाँच दिनों तक
पानी भरवाया

छः चिडियाँ 
बिनने को आई 
सात बत्तकों से
पंखा  झलवाया

आठ चूल्हों
पर उसे चढ़ाया 
नौ मन लकड़ी
हाथी लाया

देख रहे थे
दस -दस बच्चे
फिर भी चावल
रह गए कच्चे

कृष्णा ने सबको
को समझाया 
खेल-खेल  में
पाठ पढ़ाया। 



कोलकत्ता
२१ जुलाई, २०११


[ यह कविता  "एक नया सफर " में प्रकाशित हो गई है। ]

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