Friday, June 25, 2010

बचपन

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बारह बर्ष की  
बाली उम्र में जब
खेलने-कूदने,पढने लिखने
 और मौज मस्ती के दिन थे
 उस समय ससुराल में पाँव रखा 

घूँघट में रहना
कम बोलना,ज्यादा सुनना
मुस्कुराना और सहना
सब कुछ तुमने सीखा 

गृहस्थी को संभाला
बच्चों को पढाया लिखाया
बहुओं और पोते पोतियों को
संभालते सँभालते
शैशव और यौवन दोनों बीत गये

हाथो में मेहंदी लगाते-लगाते
बालो में मेहंदी लगाने के
दिन आ गये 

आज वो अपने पोते-पोतियों
के साथ बैठ कर
अपने बचपन को फिर से
जीने लगी है

बचपन में खेले 
डेंगा-पानी का खेल
गुड्डा -गुड्डियों का खेल
आँख मिचौनी का खेल 

बच्चों को सुनाते-सुनाते
उसके चहरे पर एक बार फिर से 
बारह वर्ष वाली बाली उम्र की
हँसी लौट आती है।  

सुजानगढ़  
२५ जून, २०१०

(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित  है )

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