Saturday, November 7, 2009

गर्मी की रातें



गाँव में
गर्मियों के दिनों में
छत पर पानी डाल कर
ठंडा कर दिया करते थे 


शाम का
धुंधलका होते ही
छत पर चले जाते थे 

बिस्तर पर
लेटे-लेटे खुले आसमान में
 चाँद में चरखा कातती बुढ़िया को
देखा करते थे 

चाँद के सरासर
सामने सप्तऋषियों को बाँधने
और तारों को फँसाने का
गुमान करते थे 

रात में तारों की बरात
और टूटते तारों का नजारा
देखना अच्छा लगता था

ये सब 
करते-करते
कब नींद आ जाती
पता भी नही लगता था  

अब रात को
आसमान की जगह
केवल कमरे की छत
दिखाई देती है

लेटे-लेटे
गाँव की सुनहरी
 यादों में खो जाता हूँ
अब भी सपने में गांव की
   छत दिखाई देती है।  


कोलकत्ता     
७ नवम्बर, 2009

(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )

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